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रणभूमि:एक रण

रणभूमि :एक रण डॉ. विमल ढौंडियाल (Dr. Vimal Dhaundiyal) जीवन ऱण की भेरी बजा कर नाद प्रचण्ड मैं करता हूँ अपने रण की विजय पताका तुझे समर्पित करता हूँ चंदन चर्चित भस्म विलेपित शीश तुझे मैं नावाता हूँ नत मस्तक हो तुझे पुकारूँ नाथ! चलूँ अब रणभूमि दिग्भ्रमित हर मानव होकर बना रहा कैसी काया? हर हर शंकर तेरा किंकर भँवर बीच जब चिल्लाया अवलोकित कलिकाल दशा को डमरू वाला मुस्काया कर्मविरत! मत मुझे पुकारो सजी तुम्हारी रणभूमि माया रंग से रंजित होकर जीव ब्रह्म विसराता है पाकर कुछ भौतिक सपनों को खुद को धन्य समझता है जीव पतंगा जग दीपक में निज अस्तित्व मिटाता है माया तो बस खेल खिलाए जीव त्यागता रणभूमि पंकज पंख में बिलख रहे पर आंचल मोह का न त्यागा पृथक् डाल से नलिनी को कर गज काल पाएगा लीला हंस अकेला अनत गगन में उड़ा प्रीत से मिलने को देह मिलेगी पंच तत्व में छूटेगी यह रणभूमि पाना है यदि खुद को तो अध्व मध्य से साध्य को जा त्याग भोग कर कष्ट देह का सुगत वचन से प्रगत बना अमल -धवल निर्मल को पाकर प्रकाशित होगी ज्योति मिलेगा पद निर्वाण का तुझको साक्ष्य रहेगी रणभूमि कामिनी कांचन कालदूत जब